शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016

नारी मन


अविरल स्वछंद मेरे मन की गंगा बह निकली
वेग मे करूणा का प्रबल आवेग
ज्यो सागर मे उठते गिरते ज्वार भाटा अनेक
कल कल छल छल ज्यू ब्रह्मपुत्र मे अश्रु समावेश
इस नारी मन की पीर की थाह न पाया कोई
बांध बने सरपट कभी तो राह मिले जग को सही

11 टिप्‍पणियां:

  1. kya baat hai nari man ka sateek varnan kiya hai aapne...bhasha bahut upyukt hai..varnan ke liye

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  2. Mere man mein uthate jwar bhata ko samajh liya aapne

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  3. nari mann ka behad khusurat chitran..Great poetry

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  4. mein naari to nahi par iski vedna ko kisi had tak aapki kavita ke zariye samajh pa raha hun

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  5. मैं भी नारी हूँ समझ सकती हूँ ...इस खूबसूरत रचना के लिए आपका शुक्रिया

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  6. आपका लेखन बड़ा उच्च कोटि का है ..आपकी रचनाये प्रभावित करती है ..लिखते रहिये अपने पाठको के लिए

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  7. nari komal hoti hai...lekin uski bhawnao ko rokna acche accho ke liye mushkil hai

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  8. kitna sahi kaha...jatil hai bada nari ka mann

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