एक उम्र बीत गयी उन लोगो से मिलते जुलते
जिनके चेहरे पर एक और चेहरा तब से था
जब से मैं खुद से अनजान और उनसे ख़बरदार न थी
बचपन की अठखेलियां बीती जिन बरामदों में
आज उन घरो के द्वार पर पांव रखने का क्यों मन नहीं
घर के किसी सदस्य के चेहरे का रंग धुल गया है अब
शिक्षा के मंदिर में मूर्तियों का रंग भी उजला नहीं है शायद
नहीं तो अखबारों की सुर्खियां इतनी भयावह नहीं होती
वो कौनसा दर है मेरे मौला जो रंग छोड़ता नहीं
एक मुकाम हासिल हो और जीने के लिए कुछ अर्ज़ित हो
ये सोचकर घर से निकले थे हम
क्यों वहां भी नज़र आये वही रंगे पुते चेहरे
हर दर से निराश होकर खुद को समर्पित किया जिस दर पर
हाय क्यों यहाँ भी प्रांगण में रंगों की अनवरत नदी बह रही है
एक रंग मालिक ने सबको दिया
फिर क्यों नया चोला स्वार्थवश ओढ़ लिया सबने