एक उम्र बीत गयी उन लोगो से मिलते जुलते
जिनके चेहरे पर एक और चेहरा तब से था
जब से मैं खुद से अनजान और उनसे ख़बरदार न थी
बचपन की अठखेलियां बीती जिन बरामदों में
आज उन घरो के द्वार पर पांव रखने का क्यों मन नहीं
घर के किसी सदस्य के चेहरे का रंग धुल गया है अब
शिक्षा के मंदिर में मूर्तियों का रंग भी उजला नहीं है शायद
नहीं तो अखबारों की सुर्खियां इतनी भयावह नहीं होती
वो कौनसा दर है मेरे मौला जो रंग छोड़ता नहीं
एक मुकाम हासिल हो और जीने के लिए कुछ अर्ज़ित हो
ये सोचकर घर से निकले थे हम
क्यों वहां भी नज़र आये वही रंगे पुते चेहरे
हर दर से निराश होकर खुद को समर्पित किया जिस दर पर
हाय क्यों यहाँ भी प्रांगण में रंगों की अनवरत नदी बह रही है
एक रंग मालिक ने सबको दिया
फिर क्यों नया चोला स्वार्थवश ओढ़ लिया सबने
Who is without mask here.. Good write up
जवाब देंहटाएंसर्वथा सच...क्योंकि आज की इस दुनिया में सबने वाकई कहीं न कहीं स्वार्थ को ओढ़ लिया है और अपना सत्व भूल बैठे हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर टिप्पणी पूजा ....शुक्रिया
हटाएंवाह ...कडवी सच्चाई ।। बहुत खूब ����
जवाब देंहटाएंThank you Amit
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हटाएंPerfect10
जवाब देंहटाएंChehre par pade nakab ka hatna zaruri hai.
जवाब देंहटाएंयहाँ भी प्रांगण में रंगों की अनवरत नदी बह रही है
जवाब देंहटाएंदर्द और कटाक्ष वाह उम्दा लेखन
Truely Manjula ji...I am a big fan og your blog..every time i read it ..learn a new lesson
जवाब देंहटाएंThank you ..May God bless you
Cool...nice
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