मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

नूर की बून्द

कैसी होंगी वो आँखे जो मेरा आईना बनेंगी
जिन आँखों के उजालों में मेरे अँधेरे फ़ना होंगे 
समंदर सी अथाह उस नयी दुनिया में प्यार के रंग चलन से कुछ जुदा होंगे 
नूर की गिरती उन बूंदो की तलाश में कब से निकले है हम 

बड़ी उलझन है कब कहाँ मिलेंगी वो,जिनका इंतज़ार कितने जन्मों से है 
इशारे तो बहुत मिलते है मगर 
आँखों से बात करे वो मिलता ही नहीं 
सच तो ये है की आजकल कोई आँखों से बात करता ही नहीं

भीड़ में, तन्हाई में किस्सो में, कहानी में एक अक्स उभरता है अक्सर
कहाँ ढुँढू उसकी उन दो आँखों को 
जिनकी ख़ामोशी हमसे बहुत कुछ कहा करती है 
उन आँखों की महकती खुशबू हर ज़माने में बहा करती है 

रूह को  छूती  वो नूर की बून्द मुझे मिल जाये कही 
इससे पहले के डूब जाये दिल की कश्ती 
खुदा अब जल्द मिल जाये उन  आखों का किनारा कहीँ
नहीं तो इश्क़ का मतलब ही समझा दे ज़माने को सही